भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुनो सांता / सीमा अग्रवाल
Kavita Kosh से
सुनो सांता,
इस क्रिसमस पर
जो हम बोलें देखो बस तुम
वो ही लाना
टाफी बिस्कुट भले न हों पर
आशा हो कल की रोटी की
तनिक-मनिक-सी हँसी साथ में
और दवाई भी छोटी की
लगे ज़रा भी
यदि तुमको यह गठरी भारी
अपनी सोच-समझ से तुम
फेहरिस्त घटाना
सुनो सांता
गुम दीवारों के इस घर में
ठण्ड बहुत दंगा करती है
बिना रजाई कम्बल स्वेटर
बरछी के जैसी चुभती हैं
अगर बहुत महँगा हो यह सब
छोडो, लेकिन,
बेढब सर्द हवाओं को
आ धमका जाना
सुनो सांता
चलो ठीक है खेल-खिलौने
लाओगे ही, ले आना पर,
छोटा-सा बस्ता भी लाना
जिसमे रख लेना कुछ अक्षर
जिंगल-विंगल सीख-साख के
गाके-वाके
है हमको भी
तुमको अपने साथ नचाना