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सुबह / अखिलेश श्रीवास्तव

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सोचता हूँ कि
कितना चक्रवर्ती होगा वह सम्राट
जिसके कहने पर सूरज अनवरत दहकता है
अपनी हड्डियाँ लगातार बदलता है लावे में।
और एक मुट्ठी राख तक नहीं छोड़ता।

जलो तो राख हो जाने की छूट तो होनी ही चाहिए
चीखने से रोकना तानाशाहों की निशानी है।

दाह में निकली चीख पुकार तो किसी ने सुनी नहीं
पर लोर पहुँचती है धरती तक
धरती के बेटों का जलवा यह है कि
इन लोरों का उपहास उड़ाते हैं
कभी तरंग तो कभी कण कहकर

यह दाह से उपजी लोर नहीं है
मगरमच्छ है सूरज

अपनी सुबह के लिये किसी का दाह...

इस षड्यंत्र में उल्लू व चमगादड़ शामिल नहीं हैं
इस छोटे से विरोध से भी भयभीत है चक्रवर्ती
एक के लिए धन प्रलोभन के द्वार खोल दिये गये हैं
दूसरे को दिया गया है स्तनधारी होने पर
उड़ने का वरदान

हम सब उसी चक्रवर्ती की संतान हैं
वह परम दयालु है
आप कहते रहो मुझे उल्लू
मैं तो नहीं मानूँगा!