सुरजा / ज्योत्स्ना मिश्रा
सुरजा तुम घर से भाग कर कहाँ गयी होगी?
तुम्हारे एक कमरे के घर की
बाँयीं तरफ की दीवार पर
तुम्हारी दाँयी हथेली की छाप पूछती है
तुम कहाँ गयी हो?
निकलते निकलते, लौट कर
सोये पिता की उल्टी पड़ी चप्पल,
सीधी करने के उद्यम में,
जो हल्की-सी आहट छोड़ गयीं
वो आहट बहुत बेचैन है
वो ग्लास का आधा पिया पानी
जो न जाने किस उलझन में
पूरा नहीं पिया
बहुत परेशान है
तुम कहाँ गयी होगी?
तुम्हारी कॉपी के आखिरी पन्ने पर
फूलपत्ती-सा दिखता जो एक अक्षर है
वो अक्षर पूछता है
पिछली दीवाली पर, एक बार पहन कर रख दी थी जो
वो कुर्ती नाराज़ है तुमसे
उसे भी बता कर नहीं गयीं तुम
गो पता है ये उसे भी
कि मुड़कर देखा तो होगा एक बार
पर बक्से का कुंडा खड़कने के डर से
खोला नहीं होगा
तुमने खाना खाया या नहीं?
क्या तुम्हें भी उसकी उतनी ही याद आती है?
जितनी तुम्हारी माँ के आँचल के छोर को तुम्हारी आती है?
क्या खुश हो तुम?
क्या वह कमरा इस कमरे से बेहतर है?
क्या वह चादर इस चादर से साफ?
क्या वहाँ तुम्हारी अपनी कोई जगह है
कोई जमीन? कोई आसमान?
कोई नाम? कोई चेहरा है तुम्हारे पास?
कोई अलमारी? कोई टेबल? कोई दराज़?
जहाँ तुम रखती हो मोरपंख
और सूखे गुलाब?
या अब भी सपने तुम्हारी
भिंची हुई मुठ्ठी में ही दबे हैं?
ज्यों के त्यों?
या अब भी तुम्हारे उजाले उतने ही गुमसुम
तुम्हारे अँधेरे उतने ही मनहूस?
क्या तुमने पा लिया?
इस कमरे के बाहर का स्वर्ग?
या तुम्हें पता चल गया
कि स्वर्ग कहीं नहीं था?
इस कमरे के परे सिर्फ़ एक और कमरा था
इस दीवार के उस तरफ़
सिर्फ एक और दीवार...
सुरजा कहाँ गयी होगी तुम?