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सूरज / केशव

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छज्जे पर कुहनिया टेके
कुछ पल झाँकता रहा
सुनसान अँधेरी गली में
सूरज
फिर
सहमे-सहमे उतरकर
थपथपायी
गली की मुंदी पलकें
निष्प्राण नहीं है
गली की देह
जानकर
खुशी से फैला कुछ
फिर फैलता चला गया
जीवन लौटता है
कुछ-कुछ ऐसे ही
अँधेरे की माँद से
द्वार-द्वार खटखटाता
अपनी खुशी को
दाना-दाना बिखेर
दहलीज़ों पर बटोरता
भीतर फैले कुहासे को
चुटकी-चुटकी
कितनी दरारों में
फँसकर
होता चिथड़ा-चिथड़ा
कतरनों को लपेटता
देह पर
ख़बरों के पोखर में
डुबकी लगाता
अपने होने को
सौंपता अपने ही हाथों
कदम-कदम
बढ़ता है सूरज
समय की गलियों में
एक हम हैं
कि उसे पकड़कर
रखना चाहते हैं अपने पास
सिर्फ अपने लिए।