भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सृजन / केशव
Kavita Kosh से
कहने पर भी कहीं
कही जाती है पीड़ा
पीड़ा की भूमि पर उगाता हूँ
फूल,वृक्ष,लताएं
सींचकर संचित अनुभवों से अपने
लोग कहते हैं:
वाह क्य्आ सुन्दर है फूल
कितना सघन वृक्ष
इतनी कोमल लताएँ
और
फूल तोड़
वृक्ष तले विश्राम कर
छूकर लताएँ
चले जाते हैं ज़मीन को रौंद
जिसने दिया जन्म
सुन्दरता,सघनता,कोमलता को
मेरे पास बच जाती है फिर
भूमि
जोतता हूँ हल
खोदता और गहने
शायद पीड़ा इस बार
कुछ अधिक फल जाये