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सौंदर्य / शमशेर बहादुर सिंह
Kavita Kosh से
एक सोने की घाटी जैसे उड़ चली
जब तूने अपने हाथ उठाकर
मुझे देखा
एक कमल सहस्रदली होटों से
दिशाओं को छूने लगा
जब तूने आँख-भर मुझे देखा।
न जाने किसने मुझे अतुलित
छवि के भयानक अतल से
निकाला...जब तू, बाल लहराए,
मेरे सम्मुख खड़ी थी : मुझे नहीं ज्ञात ।
सच बताना क्या तू ही तो नहीं थी?
तूने मुझे दूरियों से बढ़कर
एक अहिर्निश गोद बनकर
लपेट लिया है,
इतनी विशाल व्यापक तू होगी,
सच कहता हूँ, मुझे स्वप्न में भी
गुमान न था।
हाँ, तेरी हँसी को मैं उषा की भाप से निर्मित
गुलाब की बिखरती पंखुड़ियाँ ही समझता था :
मगर वह मेरा हृदय भी कभी छील डालेगी,
मुझे मालूम न था।
तेरी निर्दयता ही शायद दया हो,
दोनों की एकप्राणता ही शायद
तेरा अजानपन और
तेरा सौंदर्य है।