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स्वत्व / पुष्पिता
Kavita Kosh से
शताब्दियों की यात्रा करते हुए
थक चुके हैं शब्द!
शब्दों को नहीं दिखता है
ठीक-ठीक।
नई शताब्दी की चकाचौंध से
धुँधला गई हैं आँखें
पुरानी शताब्दियों के युद्ध के खून से
लाल हैं शब्द की आँखें
युद्ध
नई शताब्दी के मठाधीशों का
रंजक नशा है।
डरती हैं शब्दों की आँखें
सत्ता से आँख मिलाने में
और
सहमती हैं आँसू भरी आँखों से
अपनी छाती मिलाने में।