हंसीघर / हरिओम राजोरिया
अब नहीं लगता मेला
नहीं आता क़स्बे में हंसीघर
हंसना भूल गये हैं पिता
दर्पण में दिखाने को
नहीं रहे उनके पास दांत
और मेरे पेट में
दांत उग आये हैं
दो आने के टिकट में
लंबे और चपटे हो जाते थे चेहरे
यह खेल उम्दा था
सबसे सस्ता था यह खेल
विपदा के मारे हुए लोग
चले आते थे यहां हंसने
पिता की अंगुली पकड बहुत पहले
मै भी गया था हंसीघर
सस्ते दामों में हंसना
उन दिनो पिता के लिये ज़रूरी था
पिता के पेट में बल
और मेरी धमनियों में भय ने
प्रवेश किया था उस दिन
हंसीघर में आकर
बच्चों की तरह हो गए थे पिता
और मैने उसी दिन देखा
कि उथले और उभरे दर्पणों में जाकर
बिगड जाते हैं हमारे चेहरे
अब तो मै जवान हो गया हूँ
जांचकर ख़रीदता हूँ दर्पण
बनकर जाता हूँ दर्पण के सामने से
अब मैने सीख लिया है
ठीक तरह हज़ामत बनाना
सारे बेडौल और टूटे दर्पणों को मैं
कूडे के ढेर में डाल आया हूँ।