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हमारे बीच / मंजूषा मन
Kavita Kosh से
तुम एक किनारे पर खड़े थे
मैं दूसरे पर
तुम मुझे देख सकते थे
और मैं तुम्हें
हमारे बीच बहती थी
भावों की नदी
कभी शांत धीमे
कभी उफनती तोड़ती अपने ही तट
तुम उस किनारे की रेत पर
गढ़ रहे थे मेरा रूप
मेरा प्रतिबिंब
और मैं इस किनारे पर
कर रही थी प्रयास
तुम्हारे व्यक्तित्व को गढ़ने का
तुम और मैं
हम दोनों ही
पल-पल इस नदी से
भर रहे थे
भावों की अँजुरी
और इस धुन्धलाये प्रतिबिम्ब को
दे रहे थे नया रूप
मेरे और तुम्हारे बीच
दूर रहकर भी बह रही थी
भावनाओं की अल्हड़ नदी।