18 मार्च / विमल कुमार
कितने सालों से इन्तज़ार करता रहा
इस डायरी में
तुम्हारी इस तारीख़ का
अपने घर के कैलेण्डर में भी
देखता रहा
इस तारीख़ को
कोई ख़ुशबू मेरे भीतर
फैल जाती रही हमेशा
कोई रंग बिखर जाता रहा
मेरी दीवारों पर इस तरह
झाँकने लगता है
तुम्हारा चेहरा कभी डायरी में
कभी कैलेण्डर में
तुम्हारी आवाज़ भी देती है
सुनाई काग़ज़ के भीतर से
तुम्हारी हँसी भी देती है
दिखाई
कई दिनों से
कई महीनों से करता हूँ
इन्तज़ार इस तारीख़ का
क्या करती हो तुम आज के दिन
सुबह देर से उठती हो
रात में देर तक जागती हो
कहीं जाती हो बच्चों के साथ
घर में गुमसुम बैठी रहती हो
याद करती हो अपने बीते हुए दिन
इस बार फिर तुम्हारी यह तारीख़ आएगी
मेरे कैलेण्डर में
एक बार तुम फिर मुस्कराओगी
मेरी डायरी में
तुम एक बार फिर खिलखिलाओगी
पर मैं इस बार भी
तुमसे मिलकर
तुम्हें जीवन की
शुभकामनाएं नहीं दे पाऊँगा
हर साल की तरह
पर मुझे हमेशा याद रहेगी
मेरे जीवन के टूटे-फूटे इतिहास में
यह तारीख़
जो मेरे लिए बहुत मायने रखती है
आज भी
तुम्हें भले ही मेरी तारीख़
याद न हो
पर तुम्हारी तारीख़ से
तुम्हारा दर्द जुड़ा है
जिसे मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा
अपने चेहरे
और अपने नाम की तरह