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अंतिम अनुरोध / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
निर्धन
बेहद निर्धन हूँ,
जाते-जाते
मुझको भी
जीने को
कुछ दे दो !
जो सचमुच
मेरा अपना हो
सुखदायी
मीठा सपना हो !
प्यासा
बेहद प्यासा हूँ,
जाते-जाते
मुझको भी
पीने को
कुछ दे दो !
निर्मल गंगा-जल हो,
झरता मधु-स्रव कल हो !
यों तो
अंतिम क्षण तक
तपना ही तपना है,
यात्रा-पथ पर
छाया तिमिर घना है !
एकाकी
जीवन अभिशप्त बना,
हँसना-रोना सख्त मना !