अंदर का आदमी / राजेश श्रीवास्तव
कोई नहीं चाहता सुगंधि ढोना
अब अभिशाप है गुलाब होना
क्योंकि व्यवस्था का ये प्रश्न बहुत पुराना है
पराग, सुगंधि, मकरंद का मतलब
एक-न-एक दिन मसला जाना है।
शायद इसीलिए हमने अपने चारों ओर
काँटे ही काँटे बो लिए हैं
और अजाने ही अनायास ही
हम सब नागफनी हो लिए हैं।
यह जो नया विश्लेषण है, यह जो नई रीत है
मेरे भीतर का आदमी इसीसे भयभीत है।
बाहर के आदमी की भीतर के आदमी से
जन्म जन्मांतर की दुश्मनी है
दोनों में हमेशा ठनी है।
और आज के समाज की यह आवश्यक मजबूरी है
बाहर के आदमी को जिंदा रखने के लिए
भीतर के आदमी की हत्या जरुरी है।
आज के दौर का हर आदमी
आज इस कुचक्र का मारा है
और नैतिकता की परिधि में
आज हर व्यक्ति हत्यारा है।
आप भी हत्यारे हैं, मैं भी हत्यारा हूँ
आप भी शापित हैं, मेरा सर्वस्व भी शर्मिंदा है
फर्क सिर्फ इतना सा है
आपके बाहर का आदमी बचा है,
मेरे भीतर का आदमी जिंदा है।