अंधेरे में काशी / श्रीप्रकाश शुक्ल
शाम के वक़्त लोग जब
अपने अपने अड्डों केा जाते हैं
काशी अपने अंधेरे में चली जाती है
काशी का अपने अंधेरे में जाना
अंधेरे में काशी का होना है
जहां जीवन की आहट मिलती है
और ज्ञानी अपना ज्ञान बघारता है
अंधेरे में काशी
उजाले के काशी से ज़्यादा खूबसूरत है
और मादक भी
यह अंधेरे में मचलती है
और मिचलती भी
जहाँ दर्द है और प्रसव भी
अंधेरे में काशी
अपलक निहारती रहती है ग्राहक
टिकठी की तरह तनी हुई
कभी यह अलसाई हुई खूबसूरत नायिका है
तो कभी हंकारती हुयी नागिन
और इन दोनों के बीच
उसका विस्तार वही महाशमशान होता है
जिसकी ज्योति कभी बुझने नही पाती
इसकी हर घाटों में थिरकन है
और थकान भी
करीब-करीब उस बूढे़ की तरह
जो हर शाम घर से नाराज़ होकर निकल जाता है
अपनी जवानी की खोज में
अंधेरे में यह शव है
उजाले में पाखंड
अंधेरे में काशी को समझना हो तो
गंगा के ठीक बीचो-बीच चले जाइये
काशी लगातार उभर रही होती है
सूरज लगातार डूब रहा होता है
काशी में चीज़ें अंधेरे में आती हैं
जैसे अंधेरे में आते हैं विचार
अंधेरे में आता है दूध
अंधेरे में आता है प्रेम
अंधेरे में काशी
एक तरफ से उठती है
तो दूसरी तरफ से सिकुड़ रही होती है
काशी का यह उठना और सिकुड़ना
काशी का अंधेरे में चलना है
एक ऐसे उजाले की तलाश में
जहाँ गैर अज़ निगाह कोई हाईल नही रहता ।
रचनाकाल : अक्टूबर 2007