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अकड़ / मधु आचार्य 'आशावादी'
Kavita Kosh से
दूर-दूर तांई
पसरयोड़ी रेत
जिणनै कोनी किणी सूं
कोई हेत
उण सूं भी राखै
तिरछी निजरां
ऊभो रैवे आपरी अकड़ मांय
अेकलो रूंख
कोई मिलै का नीं मिलै
उणनै नीं परवा
कोई कीं देवै का नीं देवै
उण सूं ई बेपरवा।
खुद किणी रै
नेड़ै नीं जावै
हारयोड़ै मिनख नै
चला ‘र बुलावै
मरणो जाणै
झुकणो नीं आवै
आभै साम्हीं
अकड़ ‘र ऊभो हुय जावै,
रूंख री आ अकड़
जबरी है।