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अग्नि रेखा खींचो / अम्बिका दत्त
Kavita Kosh से
हवा, जब अनमनी और उदास हो
गहरे तपे तवे सा
नीला हो जाए क्षितिज
दिशाओं के पास इकट्ठे हो जाएँ
जब गर्द भरे बादल
तुम्हारी आँख में भर जाए
बहुत सारा कोहरा।
तुम्हारे कान थक गए हों
लगातार सुनते-सुनते
अविश्वास का टूटता संगीत।
रह-रह कर उठते हों
तुम्हारे आस पास
सड़े हुए दही की दुर्गन्ध के भभूके
जब तुम भूल चुके हो भरोसा
अपने शरीरके अंगों का
ऐसे वक्त रंग का खेल खेलना चाहिए
आसमान के ठीक बीचों-बीच
खींच देनी चाहीये
एक आग की लकीर
आग, यदि तुमने मनसे बोई है
तो मौसम के बदलने का इंतजार मत करो
आग जब जब भी मनसे बोई जाती है
उजाले का जंगल उगता ही है
तक तिनके-तिनके जल जाती है-अनास्था !
तक रेशे रेशे जल जाता है-अविश्वास !