अचानक आ गई विपदा / जनार्दन राय
अचानक आ गई विपदा,
नमन शत-शत तुम्हें करता।
है ऋण का भार बढ़ जाता,
इसी से हूँ बहुत डरता।
है देती कष्ट जो मुझको,
उसे हँसकर सहन करता।
खुशी से झेलता पीड़ा,
नहीं मुख भी मलिन करता।
मगर जो कष्ट होता दूसरों को,
यह बहुत खलता।
है ऋण का भार बढ़ जाता,
इसी से हूँ बहुत डरता।
बढ़ते बोझ पत्नी, पुत्र,
पोते और पोती पर।
तरस आती है सेवा रत,
निरख निज पुत्र-वधुओं पर।
रोते गोद में आने निरख,
शिशु रुदन मन करता।
है ऋण का भार बढ़ जाता,
इसी से हूँ बहुत डरता।
सेवा शिष्य मित्रों की,
भुलायी जा नहीं सकती।
दया शुभ चिन्तकों की भी,
विसरायी जा नहीं सकती।
अभागा बन सबों को,
कष्ट देता ही सदा रहता।
है ऋण का भार बढ़ जाता,
इसी से हूँ बहुत डरता।
कहूँ क्या बन्धु-बान्धव से,
सजग जो सतत हैं रहते।
दिखाकर मात्र हमदर्दी,
नहीं जो बैठे हैं रहते।
निभाते फर्ज हैं अपना,
नहीं उनका हूँ कहा करता।
है ऋण का भार बढ़ जाता,
इसी से हूँ बहुत डरता।
अवधि दो-चार दिन की है,
नहीं है, मास दो-दो की।
समय सबका है बहुत कीमती,
चिन्ता यही मन की।
हमारे वास्ते उनका समय,
जो बीतता रहता।
है ऋण का भार बढ़ जाता,
इसी से हूँ बहुत डरता।
-डुमरिया खुर्द,
29.1.1985 ई.