अजनबी औरत / अमरजीत कौंके
समंदर में उतरने के लिए
हमने अभी कदम ही रखा था
कुछेक कदम ही चले थे
कि उसने समंदर के ऐन बीच
लहरों की भयंकरता देखी
उसकी आंखों में
सहम की परछाई सी उभरी
उसने मेरे हाथ से अपना हाथ
पीछे खींचा
और बोली-
मुझे वापिस जाने दो...
मैंने हैरान हो कर
उसकी आंखों में देखा
लेकिन वहाँ तो
‘वह’ कहीं नहीं थी
जिस पर विश्वास करके मैं
खौलते
गहरे समुंदर में उतर पड़ा था
उस की आँखों में
‘वह’ तो कहीं भी नहीं थी
वहाँ तो खड़ी थी अब कोई
अजनबी सी औरत
अन्जाना बेपहचाना सा
कोई वजूद
जिसके भीतर कितने ही युद्व
लड़े जा रहे थे एक साथ
कितने ही रिश्तों का
मचा था घमासान वहाँ
उसकी आँखों में
उन युद्धों की
तसवीर झलकती थी
वहाँ मेरा अक्स तो
कहीं भी नहीं था
मैं
जो उस पर विश्वास करके
हिलोरे खाते
गरजते समंदर में
उतर पड़ा था।