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अणुबम की रिहर्सल / सरोज कुमार
Kavita Kosh से
वैसे ही नहीं रही जिन्दगी
निरापद!
अब तो
सौगतौं से डर लगता है!
शिराओं में बहती हैं!
बदबू भरी नदियाँ
किडनियाँ सूजी हैं शहर की!
बस्ती के फेफड़ों में
भडभड़ाता पेट्रोल धुँधुआता है
दमे को दमदमाता हुआ!
खाँसता शहर
बलगम निगलता है!
छाती पर खुदे हैं
जहरीली गैस के कुएँ
जिन्दा रहना अब एक खबर है!
अक्षौहिणी झुलस गई
राजा की चाल में,
अणुबम की रिहर्सल
हो गई भोपाल में!
सड़क के किनारे जो पड़ी है
कुतिया नहीं
लड़की है
लाल फ्रॉक
और नीली आँखों वाली!
स्कूल मरणासन्नों के गोदाम
बन गए हैं
दुकानें सड़कों पर पसरी हैं
और सड़कें
आदमी के जिस्म पर होकर जाती हैं!