अधर जीवन / ओम पुरोहित ‘कागद’
जब भी मैं,
सोच के तालाब में,
स्मृति का पत्थर फेंकता हूं।
लहरे खाता दुःख,
ह्रदय के कीनार आ लगता है,
........और मै उस में
पंजों,
घुटनों,
कमर,
सीने तक उतरता चला जाता हूं।
मेरे अस्तित्व,
मेरे जीवित होने का प्रमाण,
मेरी आखें
सब लहरों में खो जाते हैं।
तब मेरा जीवट
जीवन्मृत हो
जीविका के लिए जुट पड़ता है;
दिन भ्र की मेहनत के बाद पाता हि,
एक अनोखी सोच का सेला !
जो अपनी नुकीली नोक के-
......और फिर एक दिन
छोड़ आता है
किसी पसरे हुए
तथा,
भागते हुए लोहेके बीच।
लेकिन, तभीसमय आत है,
दांत किटकिटाता।
मुझे यह आभास तक नही रहता, कि
यह मेरा घालक है या पालक।
दबाव में आकर
मैं समझोता कर लेता हूं
रात गुजर जाती है,
घर के ही पलंग पर।
सुबह-
मां,
बाप,
भाई,
बहिन,
बीवी,
पड़ौसी,
मित्र,
एक ही स्वर में बोलते है ;
यदि बेचारा
निरूढ़
निपूता होता, तो आज
कल की बात होता
लेकिन यह,
जीने की कला जान गया,
छल के बल,
उम्र काट देगा, पोच !
मेरा सोच
जीवन्मुक्त होने के लिए
छटपटाने लगता है
.......और गिर पड़ती है
मेरे पैरों के बीच स्मृति।
....फटक......
आवाज के साथ ही,
तन्द्रा भंग होती है,
तब मैं
एक ही झटके से उसे उठा कर,
आंख मीच कर,
भविष्य के अंध कूप में फेंक देता हूं।
तब मुझे सिखाता है समय ;
कमर के बल चलना
आंख के बल खाना
हाथ के बल बोलना
मुंह से आरती गाना।
जो देता है- रोटी।
क्या एक रोटी के लिए,
आत्मा का अपराधी बनूं,
आंख मूंद कर,
हाथ फैला कर
कूद पड़ूं
इस दूसरे गर्त में?
.....और इसी तरह सीख लूं जीना?