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अधूरा है जो / दीप्ति पाण्डेय
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साँझ की शिला पर पीठ टेक
गहरी उच्छ्वास ले
तुमने पूछा था
कि तुम्हारी आवाज के पैरों में घुँघरू किसने बाँधे हैं
तुम अनभिज्ञ थे इस बात से
कि उस इक टोक से
मेरा प्रिय मर्सिया अधूरा रह गया
जो अधूरा है अब तक
उस दिन मेरी आवाज़ की आवृत्ति और आयाम ऐसे ही थे
जैसे पखेरूओं के उड़ने पर अलगनी के होते है
कैसे कहूँ कि मृगमरीचिका में खोई है मेरी तान
पगलाई सी ढूँढती हूँ अपनी आवाज़ का वो आखिरी घुँघरू
जिसकी खनक को अब मैं सुन नहीं पाती
मेरी पारदर्शी चमड़ी के भीतर एक कोलाहल मचा है
शोर है
एक निरीह तान जो कभी जिजीविषा की साक्षी थी
मर रही है
मर गई है
मेरा प्रिय मर्सिया अधूरा है