भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अनागत / रघुवंश मणि
Kavita Kosh से
कोई नहीं जानता
किस तरह बनेगी
वह आकृति
जो अभी परिकल्पना तक में नहीं
बि जो ज़मीन में नहीं डाला गया
उसकी शाखाएँ-प्रशाखाएँ
किन-किन दिशाओं में फैलेंगी
अभी तो यह मालूम नहीं
आसमान का रंग कैसा होगा
कल की सुबह
परिस्थिति की प्रतिकूलता में
अनुमान तक पाप है
गद्दार विचरों के चलते
सहज हैं शंकाएँ
बीज की नैसर्गिक क्षमता के विरुद्ध
भूमि की ऊर्जस्विता के खिलाफ़
हवा, पानी और आसमान के प्रति
कोई परिवर्तन प्रतिदिन होता है
अवश्यम्भावी वर्तमान की तरह
हमारे बीच में जनमता है
जिसे हम बख़ूबी पहचानते हैं।