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अन्‍त्‍यानुप्रास / अर्सेनी तर्कोव्‍स्‍की

Kavita Kosh से
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बहुत अधिक महत्‍व नहीं देता मैं इस शक्ति को,
गाने को तो छोटी-सी चिड़िया भी गा सकती है।
पर न जाने क्‍यों अन्‍त्‍यानुप्रास का कोश लिये
इच्‍छा होती है पूरी दुनिया घूम आने की
स्‍वभाव और विवेक के विपरीत
मृत्‍यु-क्षणों में कवि को!

और जिस तरह बच्‍चा कहता है - 'माँ',
छटपटाता है, माँगता है सहारा,
इसी तरह आत्‍मा भी अपमानों के अपने थैले में
ढूँढ़ती है मछलियों की तरह शब्‍दों को
पकड़ती है श्‍वासेन्द्रियों से उन्‍हें,
विवश करती है तुकांतों में बैठ जाने के लिए।

सच सच कहा जाये तो हम स्‍थान और काल की भाषा हैं
पर कविताओं में छिपी रहती है
तुकबंदी करते रहने की पुरानी आदत।
हरेक को मिला है अपना समय
गुफा में जी रहा है भय,

और ध्‍वनियों में जादू-टोने तरह-तरह के।
और, संभव है, बीत जायेंगे सात हजार वर्ष
जब पुजारी की तरह कवि पूरी श्रद्धा के साथ
कॉपेर्निकस के गायेगा गीत अपनी कविताओं में
और पहुँच जायेगा वह ऑइन्‍स्‍टाइन तक
और तब मेरी मृत्‍यु हो जायेगी और उस कवि की भी,

पर मृत्‍यु के उस क्षण वह विनती करेगा सृजनात्‍मक शक्ति से
कि कविताओं को पूरा करने का उसे समय मिले,
बस एक क्षण और, बस एक साँस और,
जोड़ने दे इस धागे को, मिलाने दे दूसरे धागे से!
क्‍या तुम्‍हें याद है अन्‍त्‍यानुप्रास की वह आर्द्र धड़कन?