अपनी हार / राजेश श्रीवास्तव
अपना घर, अपने लोग, अपनी दीवार,
अपने दल, अपना युद्ध और अपनी ही हार,
जिंदगी की मायावी महाभारत में
अब तक ऐसे ही बिखरे हैं परिवार।
दादा-दादी मरे
अब आँखों का पानी मर गया है
चार भीत का मकान
चालीस दीवारों में बिखर गया है
मुँह छिपाए अपने दोनों हाथों से
सामने खड़ी है अब बुजुर्गों की हार।
मंदिर टूटे, श्रद्धा टूटी,
और कहीं विश्वास टूटे
विसंगतियों के आगे
जीवन के सारे अनुप्रास टूटे
जैसे जैसे लगे बढ़ने कद अहम के
घटते गए संवेदना के आकार।
संबंध बिखरे कदम-कदम पर
किंतु थोथे दंभ पले
“मैं” को छोड़कर कब किस पल
हम एक कदम भी आगे चले
बच कहाँ पाएगा कोई आदमी जब
सीना ताने सामने खड़े हों अहंकार।
बहुत तमाशे देखे
अपनी पीढ़ी और बुजुर्गों के
जीव-हिंसा के विरोधी हैं
पर शौकीन हैं मुर्गों के
मन के माँसाहारी सारे के सारे
करते केवल शब्दों से शाकाहार।
जिंदगी, बूढ़ी काकी
टूटती साँसों से परिवार बुनती
पर सबकी अपनी मजबूरी थी
माद्री रही या कुंती
नपुंसक ही हो जाए कोई पौरुष जब
तो फिर करेगा क्या उफनता श्रृंगार।