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अपनी ही अन्यत्रता / अमृता भारती

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मैं भाग रही हूँ ।

बाहर
अँधेरा हो गया
मेरे रास्तों पर
पर अन्दर अब तक
रोशनी नहीं हुई ।

स्मृति में
दबी हुई आग को
अलग कर रही हैं
टूटी हुई टहनियों की तरह
उँगलियाँ --

और
ठण्डी राख पर से पोंछ रही हैं
हर चिह्न
हर आहट...

मैं भाग रही हूँ
अपने को उढ़का कर
अपने अन्दर ही --

जन्म मुझे दे रहा है
मृत्यु मुझे ले रही है
और जीवन

मानों यह मेरी
अपनी ही अन्यत्रता है ।