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अपरान्ह में / नंद चतुर्वेदी

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अब तो रोज देखता हूँ तुम्हें
अस्वस्थ, औषधियों और इंजैक्शन के
डिब्बों से घिरे
रोज देखता हूँ तुम्हारा धैर्य
देखता हूँ जहाँ से भी
आता हो
पाताल लोक से
तुम्हारे जीवन का झरना

वसंत के दिनों में
तुम्हारी तरफ देखने का
अवकाश नहीं था
एक स्त्री होने-होने में
खत्म हो गये सब दिन

आकाश की बची-खुची धूप में
अब तुम्हारे साथ बैठने में
अपने स्वार्थ की छाया
लम्बी और लज्जाकारक है

अपने सुख का एक-एक दिन गिनना
याद करना
लौटाना बीते हुए को
या सोचना उस अनिर्दिष्ट भविष्य को

तुम्हारा चेहरा
इतने समीप से कभी नहीं देखा था
देखा होता तो अब मिलाता
कौनसा सुख-दुख
दे या ले गयी है
वह रोशनी, वह छाया।