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अपवित्र / स्वरांगी साने

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वीरों के रक़्त ने पवित्र किया था माटी को
इसी तरह से बने हैं सारे आख्यान
पर स्त्रियों का रक़्त

अपवित्र!

और अब उसके बाद!

काठ मार जाना किसे कहते हैं
पूछिए उससे जो पड़ी है चुपचाप

चुपचाप लड़नी है उसे ज़ंग
रोज़ की तरह
भले ही उसके भीतर की ताक़त को
लग गई हो रक्तिम जंग आज
उसे नहीं दिखानी थकान

थकान अनदेखी कर दी जाती है उसकी
कर सुविधा का लिहाज़

लिहाज़ करते हुए ही
वह करती है काम

काम-क्रोध, मद-मोह से
दूर रहना है उसे इन दिनों
दर्द सहना है
दर्द जो उसे भीतर ही भीतर कर रहा है रीता

रीता नहीं दिखना उसे
रिसाव को सहना है
अलग नहीं बैठना चार दिन
दो क़दम भी न चल सके
तब भी दौड़-दौड़ कर करनी है तीमारदारी

तीमारदारी करने के लिए ही बनी है वह
पर उसे
मगरी की तरह निढाल पड़े रहना है
सूखे धरातल पर
बाहर हटा पानी

पानी ही तो है उसका रक्त
यदि सच में रक्त होता
तो उसके नाम भी होते आख्यान
पर उसे नहीं कोई अधिकार
उसके लिए एक ही वाक् प्रचार
कुत्सित हास्य!

पवित्र इतिहास में
उसके हिस्से अपवित्रता
अपवित्रता का नहीं बनता इतिहास!