अब्बू तुम्हारी याद / शहनाज़ इमरानी
तुम्हारी याद
रोज़ तपते दिन का सामना करती है
फिर ढलते शाम के सूरज तक पँहुच जाती है
आज देखो फिर काला अँधेरा पीला चाँद ले आया है
क्यों बेतरतीब-सी है यह दुनिया
कुछ ठीक करने की कोशिश में तुम
माथे का पसीना पोंछते रहे
तुम्हारी बातों में थी रोशनी
ज़िन्दगी का संघर्ष और बहुत सारा साहस
शुरूआत और अन्जाम के बीच अब भी
भटकती है कहानी
कहीं धुएँ को तरसते हैं चूल्हे तो कहीं
जीवन ने सिर्फ़ व्यापारी बना दिया है
ज़ुल्म करने वालों और
ज़ुल्म सहने वालों तक एक ही कहानी है
जनसंख्या बढ़ती है तो भूख भी बढ़ जाती है
रिश्तों का जोड़ टूट गया है
इस दौड़ में अगला क़दम पीछे वाले से छूट गया है
हवा में फैले हैं अन्देशे और हाँफता हुआ डर
दुनियाँ बन गई है एक बारूद की खदान
अब भी जारी है राजनीति के झगड़े कुर्सी की खींच-तान
सब कुछ ही है वैसा
बदल कर भी कुछ न बदलने जैसा ।