भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
Kavita Kosh से
मैंने अपनी क़लम उठाकर रख दी है ज़मीन पर
अब तुम सब अपनी-अपनी आँखें
हटा सकते हो।
मुझे अब घेर लिया है
सिर पर आकाश से टूटे अँधेरे ने
मेरी आस्तीन की ओट में अब
सिमटी पड़ी है बिजली
आँधी की तेज़ रफ़्तार में बहता जा रहा
ओ माँ, ओ माँ...कहकर, भूख से बिलखती
एक सिरकटी चीख।
मैं देख रहा हूँ
मेरा अपना ही एक बेजार पड़ा हाथ
चारों तरफ मुँह बाये सर्वनाश की ओर फंेक दिया गया है
मैं चाह रहा हूँ कैसे भी हो, अपना वह हाथ उठा लाऊँ
लेकिन मैं लाचार हूँ।
मैं चाहकर भी
ऐसा नहीं कर पा रहा।