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अब नहीं / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
अब सम्भव नहीं
बीते युगों की नीतियों पर
एक पग चलना,
निरावृत आज
शोषक-तंत्र की
प्रत्येक छलना।
अब नहीं सम्भव तनिक
बीते युगों की मान्यताओं पर
सतत गतिशील
मानव-चेतना को रुद्ध कर
बढ़ना।
सकल गत विधि-विधानों की
प्रकट निस्सारता,
किंचित नहीं सम्भव
मिटाना अब
बदलते लोक-जीवन की
नयी गढ़ना।
शिखर नूतन उभरता है
मनुज सम्मान का,
हर पक्ष नव आलोक में डूबा
निखरता है
दमित प्रति प्राण का,
नव रूप
प्रियकर मूर्ति में
ढल कर सँवरता है
सबल चट्टान का।