अभरन / प्रवीण काश्यप
वर्षा ऋतु मे,
भीत पर परैत
पानिक छीच्चा में
धोखरि रहल अछि
ढोरल सभटा रंग!
भीत्ति चित्र सँ निकसैत
सान्होओन गंध मे
अपन अतीत में हेरायल
एक वसना, कोनो विधवा
हमर दादी-बाबी-नानी
अपन झुरियायल हाथक आँगुर
फेरैत अछि
लाल-पीयर अपन अतीत मे!
अपन सभटा अभरन,
सिंदूर सँ भरल सीउँथ,
काजर सँ भरल आँखि
अलता सँ लाल-लाल भेल
अपन घर-आँगन!
एक वसना कोनो विधवा
हमर दादी-बाबी-नानी कें
होइछ स्मरण
अपन जीवन मे,
बीतल एक-एक रंग!
आ शनैः शनैः ओकर उरैत रंग,
फेर एक दिन
सभटा रंग मलील!
तकर बाद बँचल मात्र
लभरल पाड़ल डरीर!
हमर दादी-बाबी-नानी
एक हाथ भीत पर रखने
दोसर सँ पाड़ि रहलीह अछि अरिपन
अपन पेटक हिस्सा
चाउर सँ पिठार,
पिठार सँ अरिपन!
मुदा आँ अरिपन!
मुदा आँखिक नोर मे
लेभरा जाइत छैक सभटा रंग!
हमर दादी-बाबी-नानीक
कोनो बेटा वा पोता वा नाति
घीच लैत छैक ओकरा
ओकर ओसार पर सँ।
दूर हट बुढ़िया!
फर ने भीत, ने चित्र, ने अरिपन
ने रंग ने रंगक कोनो प्रयोजन
आब ने एहिठाम रहते फूसक घर
ने भीतक टाट, ने अकर-दकर
आब एहिठाम बनतै कंक्रीटक मकान
सबसँ डिजाइनदार पाथर लगतै
डिस्टेंपर हेतैक,
आ देबाल सभ पर
विदेशी मोर्डन आर्ट चमकतै!