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अमृत देवता के हाथ / रश्मि प्रभा

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सर्वप्रथम कृष्ण मनुष्य
फिर भगवान्
कभी कुशल राजनेता
कभी सारथी , .....
कभी सार कभी सत्य
आदि अनादि अनंत अच्छेद अभेद
सूक्ष्म ब्रम्हाण्ड
मौन निनाद
वह था
वह है
वह रहेगा ..........
तुम जितना मिटाओगे
वह उभरेगा
कहाँ मार पाया कंस उसे
पूतना ने स्वयं दम तोड़ दिया
क्या कर लिया हिरणकश्यप ने प्रह्लाद का
प्रह्लाद को भस्म करने की चाह लिए
होलिका जल गई !
....
लगी थी दाव पर जब द्रौपदी
भरी सभा में जब हुए थे सब मौन
तो कृष्ण ने महाभारत की नीव रखी
इस पर ऊँगली उठाकर
कर पाओगे क्या तुम कृष्ण को कलंकित ?
दुह्शासन की ध्रिष्ट्ता क्या हो जाएगी गौण
क्या इसके लिए
बचपन से किया कृष्ण ने कोई प्रयोजन ?
......
चेतन ,अचेतन , परोक्ष, अपरोक्ष
इसे वही देख सकता है
जिसमें व्याकुलता हो एकलव्य सी
निष्ठा हो प्रह्लाद सी
जो विनीत हो अर्जुन सा....
द्वेष ,प्रतिस्पर्धा आवेश
असुरों सा समुद्र मंथन तो कर सकता है
अमृत तो देवता के हाथ ही होता है !