अलविदा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
सिंधु तट लो आ गया
नदी किनारे अलविदा
जिंदगी बहती रही
लहर धारे अलविदा।
स्वप्न में था घर बनाया
दर-दीवारो अलविदा
दम्भ रिश्तों का रहा
छली यारो अलविदा ।
ऐसी घड़ी भी आ गई
मुस्कान सारी खो गई
प्रेम की जो थी धरोहर
वह भी हमारी खो गई ।
मैं घर लौटा न कभी
गाँव छूटा खेत सारे
नेह जल सब पी गए
खेत हैं अब रेत सारे ।
दीप के सब पर्व फीके
नेह की बाती कहाँ
संवाद सारे मौन हैं
पाती कभी आती कहाँ ।
एक नन्हा -सा दिया है
जागकर ऊँचे शिखर
आँधियों में कह रहा-
साथ हूँ देखो इधर ।
सिंधु तक तो आ गए
पतवार न तुम छोड़ना
मैं तो तुम्हारे साथ हूँ
मुझसे नहीं मुँह मोड़ना।
घर तुम्हारा है दिलों में
शेष किसके घर बचे
प्यार को जब दी बिदाई
ईंट रही, पत्थर बचे।
हम मिलकरके उजाला
इस धरा को बाँट देंगे
स्वार्थ के जो शूल बिखरे
मिल सभी को छाँट देंगे।