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असाम्य / प्रतिभा किरण
Kavita Kosh से
एक तैरती हुई आवाज़ आती है
और मैं उठती हूँ
नींद और स्वप्न की साम्यावस्था छोड़कर
मैं आवाज़ों को खाली हाथ
विदा नहीं करती क्योंकि
इन्हें सुनना मेरा सजीव होना
सुनिश्चित करता है
और इन्हें लिख देना
मुझे निर्लज्ज बनाता है
निर्लज्जता
एक पत्थर की नोंक पर लदा
ढेर सारा पत्थर है
और सजीवता उन पत्थरों के
साम्य बिन्दु पर रखा एक छोटा पत्थर
एक कविता लिखते ही
लगती है ठोकर और
मनुष्यता के टूटे अक्षरों में खोया 'त'
आधा ही मिल पाता है
सजीवता बघारते हुए
एक छोटे 'पत्थर' में