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अस्तित्व / पद्मजा बाजपेयी
Kavita Kosh से
सोचा था, उसका तो अस्तित्व ही मीट गया,
दुनिया से उठते ही, नाम भी सिमट गया,
अब तो सब पर बस मेरा है,
हर रात नया सवेरा है, दोस्ती रंग लायेगी,
खुशियों को झुरमुट में खूब चहचहायेगी,
मरहम की आड़ में, जवानी कट जाएगी,
पर चन्द कदम चलते ही, पांव लड़खड़ा गये,
धूप छांव आते ही, सपने चरमरा गये,
उसके दरवाजे पर, आज भी मैं जाता हूँ,
यादों की झील में, डूब-डूब जाता हूँ,
राहें सब बन्द हुई, कांटे ही कांटे है,
ढूँढता हूँ रात-दिन, बेबस सब बाते है,
अपने ही हाथों, हाय मैं तो छला गया,
छिनने की कोशिश मे, मेरा सब कुछ चला चल गया।
जीने की चाहत में, रोज ही मैं मारता हूँ,
प्रश्नों के बाणों से, बच-बचकर चलता हूँ।