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आँखें बोलेंगी / भवानीप्रसाद मिश्र
Kavita Kosh से
जीभ की ज़रूरत नहीं है
क्योंकि कहकर या बोलकर
मन की बातें ज़ाहिर करने की
सूरत नहीं है
हम
बोलेंगे नहीं अब
घूमेंगे-भर खुले में
लोग
आँखें देखेंगे हमारी
आँखें हमारी बोलेंगी
बेचैनी घोलेंगी
हमारी आँखें
वातावरण में
जैसे प्रकृति घोलती है
प्रतिक्षण जीवन
करोड़ों बरस के आग्रही मरण में
और
सुगबुगाना पड़ता है
उसे
संग से
शरारे
छूटने लगते हैं
पहाड़ की छाती से
फूटने लगते हैं
झरने !