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आँखों में / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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चाहता है जी कि वेदना का वेग रोक ही लूँ,
अश्रु के प्रवाह को छिपा लूँ इन आँखों में।
आह जो उठें तोउर में ही रोंध डालूँ उन्हें,
दर्शन-पिपासा को दबा लूँ इन आँखों में।।
ध्यान मग्न हो के जी उसी से बहलाया करूँ,
सुस्मृति की सीमा को समा लूँ इन आँखों में।
आओ या न आओ तुम केवल तुम्हारी प्रिये!
सूरत सलोनी को बसा लूँ इन आँखों में।

विशिख कटाक्ष से कलेजे इनके हैं बिंधे,
कुत्सित विचारों के घिरे हैं घन इन आँखों में।
ईश-अनुरक्ति है न देश-भक्ति भाती रंच,
मदन बसा है चिरवासी बन आँखों में।।
दूषित चरित्र है, न मि, कुछ पूछो बात!
ऐसी चलचित्र की लगी लगन आँखों में।
कुक्कू पर हैं लुटे किसी के तन प्राण तो
किसी के है समा गई सुरैया मन-आँखों में।।

जब से लगी है आँख, तब से लगी न आँख,
पल को न नींद है समाती इन आँखों में।
देख घन श्याम घनश्याम नाम बोलते ही,
सावन घटा-सी घिर आती इन आँखों में।।
और की न ओर कभी भूल के निहारती हैं,
बार-बार वही छवि छाती इन आँखों में।
अन्तर-व्यथा को कह देती, रूकती न जब,
अश्रुसरिता-सी भर जाती इन आँखों में।।

खुलते ही भाव सब अंतर के देती खोल,
ऐसी है मनोज्ञ मूक भाषा भरी आँखों में।
गरल पिलाती है, सुधा-सी सरसाती कभी,
प्यार की विचित्र परिभाषा भरी आँखों में।।
होकर विमुग्ध अपने में हैं बसाती जिसे,
भूलती ने ऐसी अभिलाषा भरी आँखों में।
बार-बार पीतीं रूप-रस हैं अघाती नहीं,
चातक-सी अमित पिपासा भरी आँखों में।।

होकर विमुग्ध भ्रमजाल में फँसे न कभी,
ऐसी कुछ भर दो विरक्ति इन आँखों में।
मेधावी महान संत साधक सुजान लख,
नत हों, बसा दो वह भक्ति इन आँखों में।।
कोई दुराचारी कभी आँख भी उठा न सके,
भर दो सतीत्व की सुशक्ति इन आँखों में।
पावस झड़ी-सी लग जाए दुखी-दीन देख,
अचल बसा दो अनुरक्ति इन आँखों में!