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आँगन के पार द्वार. / अज्ञेय
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आँगन के पार
द्वार खुले
द्वार के पार आँगन !
भवन के ओर-छोर
सभी मिले—
उन्हीं में कहीं खो गया भवन ।
कौन द्वारी
कौन आगारी, न जाने,
पर द्वार के प्रतिहारी को
भीतर के देवता ने
किया बार-बार पा-लागन ।