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आइने में उसकी हँसी / सुदीप बनर्जी
Kavita Kosh से
आइने में उसकी हंसी
उसकी अंतरात्मा को
नजर अंदाज करती
अपना नाम पहने वह
दस्तक देती है
नित नये ठिकानों पर
अपनी आमद का ऐलान करती
अपना नाम पहने
उसकी हंसी
दस्तकों से भर देती है
समूची दुनिया को
कोई है क्या कहीं
इस निरवधि काल
और विपुला पृथ्वि में
कोई कहीं छिपा हुआ ?
अपना नाम उतार कर
अब वह आइने के समक्ष
उसके नजर अंदाज को
समानधर्मा सहेलियों के
जन्मांतरों में पिरोती हुई