भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आए तुम / मनीषा शुक्ला

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

"शहर से कोई आता नहीं लौटकर"
बात ऐसी अगिन झूठ कर आए तुम
प्रीत पर पीर की जब परत जम गई
तब किसी बीज-से फूटकर आए तुम

मानसी पर प्रतीक्षा चिरांकित किए
प्रेम के दृश्य मन ये रहा खींचता
आस ही त्रास में झूलता था हृदय
युग गए बीतते, पल नहीं बीतता
तोड़कर चल पड़े स्वप्न जिस नैन के
अब उसी नैन में टूटकर आए तुम

एक छवि शेष तो थी हृदय में कहीं
व्यस्तता से विवश हो दिया था भुला
हँस पड़ी हर रुआंसी प्रतीक्षा, यहां
गढ़ रहा है समय इक नया चुटकुला
थक गए नेह, अनुनय-विनय जिस जगह
आए भी तो प्रिये रूठकर आए तुम

मानकर नियति के देवता का कहा
हार, सुधि ने समय का हलाहल पिया
भाग्यवश ही कुँवारी रही कामना
पीर ने प्रेम का जब वरण कर लिया
प्रीत को छांव का था वहीं आसरा
जिस प्रणय-वृक्ष को ठूंठ कर आए तुम