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आकार / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
कसमसाते हाथों के
बहुत क़रीब
लपटों में घिरा कोई आकार
रूठ कर चला गया
वह खोजना चाहता था
हर हथेली में समुद्र
समुद्र में चट्टान
चट्टान में सोया हुआ राग
राग में
बहती हुई मद्धिम आग
रगों में रंग भरती हुई जो फैल जाती
दिशाओं में गंध सी निराकार
लपटों में घिरा कोई आकार