आकृति / महेन्द्र
अहाँक आकृति पर
टाँगल अछि मुन्हारि साँझ
अहाँक मोनमे
जन्म ल’ रहल अछि ललौन भोर
शनैः शनैः आकाश निना रहल अछि।
साँझ आ भोरक बीचमे
उदास अविछिन्न अहाँक ललाट पर
संसारक सभटा शिल्प
जेना मेटा गेल अछि। कान्तिहीन
अहाँक हृदय गहृरमे
आंगुर पर गनल जाइत अछि
सेहन्ताक चितकबरा इजोत
भरिसक इएह आकृति डोलैत अछि
पसरैत अछि पानिक टघार जकाँ
आ सुखा जाइत अछि।
बाढ़ि-रौदी, भूकम्पसँ फराक
वारूदक गंधसँ
साँसतमें पड़ल अछि
अहाँक श्वास-प्रक्रिया
अवरोधक अनुभव करैत अछि
अहाँक आकृति
अर्द्धविक्षिप्त सन तकैत रहैत अछि अनेरो।
अहाँक शिताएल देह
चौमुख दीपक इजोतमें/तापमें
पाब’ चाहैत अछि ऊर्जा
अस्तित्वमे रह’ चाहैत अछि
रक्ताभ, नीलाभ, अहाँक क्रियापद
मुदा जन्म लैत अहाँक ललौन भोर
जुआन कहाँ भ’ रहल अछि
अहाँक आकृति
निराशा आ प्रत्याशाक
बीच डोलैत
उतरल लगैए
आ टाँगल मुन्हारि साँझ
शनैः शनैः निना रहल अछि।