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आख़िरी क़ैद / आनंद कुमार द्विवेदी

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कितना फर्क है
मुझमें और तुममें
शरीर की सीढ़ियों के उस पार..तुम
कितनी सहज सी लगती हो
जैसे सवार हो घोड़े पर, या कि
एक जादुई कालीन है तुम्हारा शरीर
जिस पर चढ़कर तुम
जब चाहो .... जिस लोक में
जा सकती हो
किसी भी
और किसी के भी संसार में ,
दरवाजे के बाहर ही
शरीर को इंतजार करता छोड़कर
बेहिचक , दनदनाते हुए ...
किसी के भी अन्दर तक पंहुच जाना
कितना सुगम है
तुम्हारे लिए !

और एक मैं हूँ ...
एक कदम भी कहीं बढ़ाता हूँ
तो ये शरीर साथ चल पड़ता है
पता नही ये मुझे ढो रहा है
या मैं इसको .
हर समय टकटकी लगाये
ऐसे देखता रहता है...जैसे जन्मों का कर्जदार हूँ इसका
और इस बार सारा वसूलेगा सूद सहित
या फिर ऐसे देखता है जैसे .
मौत के समय मेरे पापा ने मुझे देखा होगा
तब.... जबकि मैं वहां टाइम से नहीं पहुँच पाया था ...और ...

एक दिन इसकी नज़रों से बचकर
भाग आऊंगा मैं तुम्हारे पास
यह जानते हुए भी कि .... तुम
नही मिलोगी मुझे
फिर भी मैं आऊंगा
और साथ लाऊंगा
अपनी बहुत सारी बेवकूफियां
थोड़े से आंसू ....और
ढेर सारा दीवानापन !

तुम ऐसा करना
मेरे लिए थोड़ा सा 'राजमा चावल'
एक कप चाय ...वैसी ही (दूध कम चीनी बहुत कम और पत्ती ज्यादा )
जरा सी मेंहदी कि खुशबू ...और
एक टुकड़ा...हंसी का
छोड़ जाना बस ...............

मुझे ज्यादा देर तक ये शरीर
क़ैद नही रख़ पायेगा
बाहर आने के लिए मैंने ....
अन्दर ही अन्दर
सुरंगे बनाना शुरू कर दिया है