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आग / विमल राजस्थानी

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जल रही है आग आज जल रही है आग
(१)
जल रहा है आसमान, जल रही जमीन भी
जल रहीं स्वदेश की जवानियाँ हसीन भी
जल रहे हैं फूल-फूल, जल रही कलि-कलि
जल रहे हैं गावँ-गाँव, जल रही गली-गली
जल रहे हैं कुंज-कुंज, जल रही हैं क्यारियाँ
जल रहे कुटीर और जल रहे रहीं अटारियां
जल रहे मर्द और जल रही नारियाँ
जल रहे कुमार और जल रहीं कुमारियाँ.

कोने-कोने से वतन के आग की लपट उठी
ज़र्रे-ज़र्रे से चमन के आग की लपट उठी
फ़ैल रही चारों ओर आग इन्कलाब की
वतन के सवाल की, वतन के जवाब की
आग इन्कलाब की.
(२)
सौंप चुकीं आँखें कई अपने सावन इसे
सौंप चुके कई नयन-आसमान धन इसे
पी रही है वतन की जवानियों का खून जब
फिर भला बुझा सकेंगे क्या बरस नयन इसे!
यह जली ही जा रही
फूँकने को तख़्त-ताज यह चली ही जा रही
तुम हमें सता रहे
पर तुम्हे पता रहे
छेड़; धी चढ़ा रहे
आग को बड़ा रहे
फूँक देगी आग यह तख़्त और ताज को
‘गुजरे कल’ में बदल डालेगी यह आग ‘आज’ को.
(3)
आग बन के आये थे, राख बन के जाओगे
ठोकरों के बीच अपनी हस्तियों को पाओगे
अगर अब सताओगे
तुम बहुत सता चुके
कर बहुत खता चुके
माफ़ हम किये चले
खून तुम पिये चले
अब हमारी बारीयाँ
कोने-कोने से बतन से आ रही चिंगारियाँ
जर्रे-जर्रे से चमन के आ रही चिगारियाँ
दगाबाज! सावधान
तख़्त-ताज! सावधान
खून से सनी हुई, वज्र-सी बनी हुई
कोने-कोने में वतन के जल रही है आग
आज जल रही है आग.