आज, मेरी नज़र / तरुण
मेरे गाँव के
सौंधे-सौंधे, काची माटी वाले
(मेरी साँस अब भी याद करती है जिसे, पलक झँपाकर)
मेरे जन्म-घर की
छान पर
मिट्टी के कवेलू चिने रहते थे;
बीच के छेदों में से हो, तीर की गति,
सूरज की किरणों का जाल
सीधे पाइप के आकार का हो
तिरछा हो उतरता था
पारिवारिक माधुर्य से नम हमारे ममतालु फर्श पर-
रुपये के आकार का
उज्ज्वल दूधिया-सुनहला प्रकाश का रुपया-सा जड़ता जमीन पर
(हमें लुभाने!)
उसमें-हमारे काची माटी वाले घर में-
माँ के द्वारा फुँकते चूल्हे के
अधगीले ईंधन-कण्डे का
डिज़ाइनदार, घुँघराला, सौंधा-कसैला, नेत्र-पीड़क नील धुआँ
मंडरा उठता था
हमारे घरेलू करुण-जीवन के पारदर्शी चित्र से उरेहता!
उतर आई है वही किरण-पगडण्डी तो आज मेरी आँखों में,
तस्कर युग के अगणित
कसैले चित्र भी तो
रड़क रहे हैं आज मेरी आँखों में!
वही पुरानी, काचे घर की किरण-पगडण्डी-
बन कर आ गई है
आज की मेरी नज़र!
1970