भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आज देखा तुम्हें / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
आज देखा तुम्हें, चाँदनी धूप में
मन अगहन हो गया, गुनगुनी धूप में।
चुटकी भर वो हँसी जो थी मुँह पर खिली
लाज की बूँद भर लालिमा थी मिली
वे झुकी-सी दो आँखें थीं ऐसी लगी
पंख खोले तितलियाँ, खुली धूप में।
तुमको देखा तो यह मेरे मन में हुआ
सबका होता नहीं रूप का है सुआ
केतकी-सा खिला था तुम्हारा बदन
मन ये केशर हुआ, रेशमी धूप में।
व्यर्थ है, जो अकेला मेरा प्यार है
आज तुम बिन मुझे कुछ न स्वीकार है
जेठ तपता हुआ मैं जहाँ, तुम वहीं
छाँव चन्दन की हो, चिलचिली धूप में।