आज बहुत मज़ा आया / प्रज्ञा रावत
आज बहुत मज़ा आया
छुट्टी की सुबह थी और
कामवाली भी छुट्टी पर
कुछ लिखने-पढ़ने का मन बनाए
किताबों की तरफ मन मसोसकर
देखा मैंने
हालाँकि अन्दर ही अन्दर
इन्द्रियों ने कुलबुलाना शुरू कर दिया था
और मन शायद ख़ुश हो रहा था
कि चलो एक दिन घर अपना
अपना-सा लगेगा
एक-एक कर रच-बस कर
सारा घर साफ़ कर डाला मैंने
फिर अपने शीतल-निर्मल घर को
निहारते गाते भूले-बिसरे गीत
नहाने के पहले का जो आख़िरी काम था
वहाँ धूनी रमा ली मैंने
कपड़े उठाए, गलाए
रगड़-रगड़ कर साफ़ किए
कपड़े धोते-धोते जाने क्या-क्या
कूट-पीट डाला पानी में
पानी में बहाती रही सारे राग-द्वेष
अपने और दूसरों के भी
काम करते-करते मुझे
याद आती रही माँ
जो सिर्फ़
यही काम सबसे मन से करती रहीं
घर में मशीन आने के पहले तक
याद आ गई बऊ
बाऊजी की नानी जो अपनी
धोती एक-एक घण्टे फचीटती थीं
शायद फचीटती हों पति का
असमय छोड़कर चले जाना
इनसान के अन्दर जाने क्या-क्या होता है
जो होता जाता है इकट्ठा
और वो उसे ढोता जाता है
इन दिनों जब दुनिया
महातरक्की के रास्ते पर है
एक बटन की दूरी पर हैं
सब एक दूसरे से
चारों तरफ है सुविधाओं का अम्बार
तो क्यों कोई एक फिर भी
फचीटता है अपना मन पानी से
कपड़ों-सा क्यों रगड़ता है खुद को
और
मुझ जैसी कोई स्त्री क्यों
लिखने बैठ जाती है इसे
शायद ये जीवन के तत्त्वों के साथ
हिलमिल कर रहने की पुकार हो।