भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आत्मरति / सरोज कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बगीचे की बेंच पर निराश बैठ गया
तय किया, अब कुछ नहीं लिखुंगा!
कला-वला साहित्य-वाहित्य बकवास है
इनके औसारे अब नहीं दिखूँगा!

हाशियों में पड़े-पड़े
कब तक मुरझाऊंगा
आराम से जिऊंगा, फिल्मी गाने गाऊँगा!
दुनिया भर की, मुझे क्यों पड़ना चाहिए?
फटाफट नसैनियाँ चढ़ना चाहिए!

मेरी बात गुलाब ने सुनी
चमेली ने सुनी
गुलदावदी ने सुनी और सबको को सुनाई!
सबने फटकारा :
जब-जब हमें दुनिया ने नोंचा है
हमने भी, तुझ जैसा ही सोचा है!
दुनिया से हमने भी बचना चाहा है
फूलों की जगह
कुछ और रचना चाहा है!
पर जब-जब कोशिश की,
फूलों के सिवाय
कुछ रचना नहीं आया,
अपने अभिशापों से बचना नहीं आया।
फूलों का सिरजन ही हमारी नियति है!
तू भी लौट जा
यह वैराग्य नहीं, आत्मरति है।