आत्म विलाप / मुकुटधर पांडेय
आशा के छल में पड़कर क्या पाया मैंने हाय!
सोच रहा हूँ यही अनुक्षण मैं अब तो निरूपाय
काल सिन्धु की ओर बढ़ रही है जीवन जल धार
फिर सकती है वह न, करूँ मैं चाहे यत्न हजार
घटती दिन-दिन आयु हो रहा बल भी दिन-दिन हीन
तब भी क्यों आशा यह मेरी होती कभी न क्षीण
हे प्रमत्त मन! बता मोह की बीतेगी कब रात
कब टूटेगी नींद और कब होगा सुखद प्रभात?
तेरे इस जीवन-उपवन में मधुमय-यौवन-फूल
बना रहेगा कब तक ऐसा ही शोभा का मूल?
नीर-बिन्दु क्या दूर्वादल पर करता है नितहास?
मिल जाता है नभ में उड़ कर उसका शुभ्र प्रकाश
पाकर जो सुख स्वप्न-राज्य में सुखी हुआ भरपूर
किन्तु जागने पर तो रोना होगा उसे जरूर
बिजली चमक-चमक कर करती है सुप्रकाश प्रदान
हो जाता है अन्धकार पर, उससे गहन महान
मृग जल मरु में करता जैसे पथिकों को बेहाल
आशा के छल का भी वैसा ही दुःख-मय है हाल
पहिन प्रेम-बेड़ी पैरों में पूरी की सब साध
किन्तु भला पाया क्या उससे मैंने सौख्य अगाध?
आँखों में पी रूप वाणी किये प्रमोद अनेक
गिरा आग की लपटों में मैं बन पतंग अविवेक
देखा और न सुना एकदम दौड़ पड़ा अज्ञान
सोच-सोच करके वे बातें अब रोते हैं प्राण
चाहा सर से कमल-कुसुम कुछ तोड़ ले चलूं साथ
पर मृणाल-कण्टक में क्षत ही आए मेरे हाथ?
मणि को लेने के हित मैंने किया प्रयत्न अपार,
किन्तु सर्प-दंशन का केवल मिला मुझे दुःख भार
कैसे इस विष की ज्वाला को सकता हूँ मैं भूल
धरा कलेजे में है मेरे आठों पहर त्रिशूल
यशोलाभ के हेतु हृदय में उपजा लोभ महान
भोजन पान और निद्रा का रहा न मुझको ध्यान
पाकर-कीट समीर योग से कलित कुसुम की बास
उसे काटने को जाता है जैसे उड़ सहुलास
वैसे ही ईर्ष्या का कीड़ा काट रहा मम गात
पाया कुफल यही क्या मैंने करके श्रम दिन रात
आशा के कारण धीवर का होता है क्या हाल
देता वह प्राणों को अपने काल-सिन्धु में डाल
मुक्ताफल के लिए डूबता नित्य अतल जल बीच
पर शत मुक्ताधिकजीवन को नहीं देखता नीच
रे अबोध मन! देगा तुझको खोया धन वह कौन?
है न लाभ कुछ इस विलाप से रह अब तू बस मौन
-माइकेल मधुसूदन दत्त के आत्म विलाप का भावानुवाद
हितकारणी, जुलाई, 1918
यह कविता “हिन्दी” “चित्र-मय जगत” पूना में भी छपी थी।