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आदमी-१ / सरोज परमार
Kavita Kosh से
12 वीं शती के दहलीज़ पर
खड़ा पत्थर-युग से आ जुड़ा
है आदमी
अब पत्थर चबाता,पत्थर मारता ही
गपियाताअ है ।
यह अलग बात है
कोई सामने से पथराव करता है
इज्जत तोडता है कोई
छिपकर,पथराकर।
कभी कोई कवि
आमदा होता है
सलीका गाने को
चलन समझने को
सहस्रों चोंचें
खाल उधेड़ती है,माँस नोचती हैं
वह डरकर पत्थर ही बन जाता है
दर्द का नश्तर
उसे भी नहीं चुभता
फिर वह भी पत्थार मारता ही
बतियाता है ।