आदमी का दोमुँहा चेहरा / प्रज्ञा रावत
धीमे-धीमे ही उघड़ता है
पुरस्कारों, प्रशंसा-पत्रों
की पट्टिकाओं से टिकाए
मनुष्यता की दुहाई देते नहीं थकते
आदमी का दोमुँहा चेहरा
उस समय सबसे ज़्यादा
तमतमाता है तिलमिलाता है वो
जो खड़ा है ज़मीन पर
न जाने कब से
जिसने अपना एक-एक रोम
एक-एक तिनका
यहाँ तक कि पीठ भी हवाले की
उस ईमानदारी की ख़ातिर
जिस पर बेशर्मी से पैर रखकर
चढ़ा वो!
ऊपर जाता आदमी नीचे नहीं देखता
पहले यश में चौंधियाई आँखें
छोड़ती हैं शरीर
धीरे-धीरे डूबती हैं नशे में
आती हुई शरीर से बाहर
हौले-हौले सारे अंग होते हैं
एक दूसरे से अलग
दिल-दिमाग़
सब अपनी ही मस्ती में
मदहोशी में छिन्न-भिन्न
तैरते हैं
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से ऊपर
बहुत ऊपर
यानी कि सचमुच बहुत ऊपर
गुरुत्वाकर्षण से पार गए
आदमी को
भारहीनता की स्थिति से
भारी-भरकम ज़माने-भर के
गिले-शिकवों के बीच
वापस लाना यों भी
आसान काम नहीं
निर्जीव होकर ख़ुद गिरेगा ही
एक दिन
पता नहीं कहाँ।